लुक्का छिप्पी

दुख़ होता है कि तुम्हारे जाने का दुख़ क्यूँ नहीं होता
डर भी लगता है
कि कहीं लुक्का छिप्पी तो नहीं खेल रहा ये दुख़ साला
ऐसा तो नही कहीं
जब तक ढूंढने ना निकलूँ
धप्पा ना मारूँ
खेल खत्म हो जाने के बाद भी
ये कहीं छुपा रहेगा

हँसी भी आती है
कितनी बार
तुम्हे मना किया है मैंने छुपने से
बोला है
खेलने की उम्र निकल चुकी है
अब आओ
साथ में बैठ कर बातें करते हैं
चाय पीएंगे
दुख के दुख दर्द बाटेंगे

सुनना कहाँ है तुमको लेकिन
यह जो जिद है
सारे दुख इसी वज़ह से हैं
या फिर तुम हो
इसकी वजह से
काफी सही सहजीवन है

Leave a comment